दक्षिण भारत का इतिहास | दक्षिण भारत के प्रमुख राजवंश कौन कौन से थे ? | पूर्व मध्यकाल में "दक्षिण भारत" का "ऐतिहासिक काल"

पूर्व मध्यकाल मे "दक्षिण भारत" का इतिहास

वाकाटकों ने तीसरी से छठी शताब्दी के मध्य दक्षिणापथ पर शासन किया। इसका मूल निवास स्थान बरार था तथा ये विष्णुव्रद्धि गोत्र के ब्राह्मण थे। अजन्ता गुहलेख से इस वंश की राजनैतिक उपलब्धियों का वर्णन मिलता है। वाकाटक पहले सातवाहनों के अधीन थे।
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वाकाटक वंश की स्थापना विंध्यशक्ति नामक व्यक्ति ने की थी। वाकाटक शासकों में केवल प्रवर सेन प्रथम (275-335 ई.) ने ही सम्राट की उपाधि धारण की। पृथ्वीसेन प्रथम (360 से 385 ई.) को धर्म विजयी कहा गया है तथा इसकी तुलना युधिष्ठिर से की गई है।
प्रवर सेन द्वितीय ने सेतुबन्ध नामक काव्य ग्रन्थ की प्राकृत भाषा में रचना की और कालिदास ने इसे संशोधित किया था। सेतुबन्ध को रावणवहो भी कहा जाता है। 
चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती गुप्त का विवाह पृथ्वी सेन प्रथम के पुत्र रुद्र सेन द्वितीय से किया। इस विवाह से गुप्त-वाकाटक गठबंधन ने पश्चिमी भारत में शकों की शक्ति का उन्मूलन किया। अजन्ता की 16वी तथा 17वी गुफाओं का निर्माण इसी समय हुआ।

काँची के पल्लव-

पल्लव वंश की स्थापना सिंहविष्णु नामक व्यक्ति ने की।इसने अवनि सिंह की उपाधि धारण की। इसके दरबार मे महाकवि भारवि रहते हैं। जिन्होंने संस्क्रत में किरातार्जुनीय की रचना की। पल्लवों ने संस्कृत भाषा को राजकीय संरक्षण प्रदान किया।
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महेन्द्रबर्मन प्रथम (600 से 630 ई.) सिंह विष्णु का पुत्र व उत्तराधिकारी था। इसने मत्तविलास प्रहसन नामक हास्य की रचना की जिसमें कापालिकों एवं बौद्ध भिक्षुओ पर व्यग्य किया गया है।
नरसिंह वर्मन प्रथम (630 से 668 ई.) अपने वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसने 642 ई. में  बादामी पर अधिकार कर पुलकेशिन द्वितीय को पराजित कर युद्ध में मार डाला तथा "वातापीकोण्ड" की उपाधि धारण की। इस विजय का उल्लेख बादामी में मल्लिकार्जुन मन्दिर के पीछे पाषाण पर उत्कीर्ण है।
नरसिंह वर्मन प्रथम ने महाबलीपुरम में एकाश्म रथ मंदिर का निर्माण किया तथा महामल्ल की उपाधि धारण की। मामल्लपुर नगर की स्थापना भी इसने की।
उसके शासनकाल मे चीनी यात्री ह्वेनसांग 641 में काँची गए। इसके बाद महेंद्र वर्मन द्वितीय (668 से 670 ई.) व परमेश्वर वर्मन प्रथम (670 से 680 ई.) शासक बना।
नरसिंह वर्मन द्वितीय 'राजसिंह' (680 से 780 ई.) ने काची के कैलाशनाथ मन्दिर महाबलीपुरम के शोरमन्दिर का निर्माण करवाया। उसकी राजसभा में प्रसिद्ध लेखक दण्डिन रहते थे जिन्होंने दशकुमारचरित तथा 'काव्यादर्श' की रचना की।
पल्लव शासक ब्राह्मण धर्म के अनुयायी थे।पल्लव काल मे नयनार (शैव) तथा अलवार (वैष्णव) सन्तों ने भक्ति आंदोलन प्रारम्भ किया।

चालुक्य-

बादामी के पूर्वकालीन पश्चिम चालुक्य (550 से 750 ई.)। राष्ट्रकूटो के उदय से इनका अन्त हुआ। कल्याणी के उत्तरकालीन पश्चिम चालुक्य (950 से 1100 ई.)। राष्ट्रों के पतन के पश्चात इनका उदय हुआ। वेंगी के पूर्वी चालुक्य (600 से 1200 ई.)
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वातापी के चालुक्य-

इस वंश के संस्थापक पुलकेशिन प्रथम थे। वातापी (बादामी) इनकी राजधानी थी। इन्होंने छ्ठी शताब्दी के मध्य से आठवीं शताब्दी के मध्य तक दक्षिणापथ पर शासन किया। पुलकेशिन प्रथम ने बहुत से अश्वमेध यज्ञ किये। उसके उत्तराधिकारी कीर्तिवर्मन प्रथम को वातापी का प्रथम निर्माता कहा जाता है।
पुलकेशियन द्वितीय (609 से 642 ई.) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इसके ऐहोल अभिलेख (रवि कीर्ति द्वारा लिखित) से चालुक्यों के बारे में जानकारी मिलती है। इसकी भाषा संस्कृत व लिपि दक्षिण ब्राही है।
पुलकेशियन द्वितीय ने अश्वमेध एव वाजपेय यज्ञ किया। उसने परमेश्वर की उपाधि धारण की। पुलकेशियन द्वितीय को पल्लव नरेश नरसिंह बर्मन प्रथम ने वातापी पर आक्रमण कर मार डाला तथा नरसिंह वर्मन प्रथम ने वातापी कोण्ड की उपाधि धारण की।
कीर्तिवर्मन द्वितीय (745-57 ई.) अन्तिम चालुक्य शासक था। यह राष्ट्रकूटों से युद्ध करता हुआ मारा गया। इसके बाद राष्ट्रकूटों ने चालुक्यों का स्थान ले लिया।
सोमेश्वर प्रथम (1043-1068 ई.तक) के बाद उत्तराधिकारी युद्ध के कारण कुछ समय के लिए चालुक्य वंश विभाजित हो गया। पश्चिमी चालुक्यों के उत्तरी भाग पर सोमेश्वर द्वितीय का शासन रहा तथा दक्षिण भाग पर विक्रमादित्य षष्ठ का शासन स्थापित हुआ। अन्ततः विक्रमादित्य षष्ठ वाली शाखा ने ही चालुक्य वंश को आगे बढ़ाया।

कल्याणी के चालुक्य-

वातापी के चालुक्यों का स्थान राष्ट्रकूटों ने लिया तथा राष्ट्रकूटों के पतन के बाद कल्याणी के चालुक्यों का उदय हुआ।
कल्याणी के चालुक्यों की स्वतंत्रता का संस्थापक तैलप द्वितीय (973-97 ई.) था। तैलप द्वितीय ने राजधानी को मान्यखेट से कल्याणी स्थानांतरित किया। विक्रमादित्य षष्टम् (1076-1126 ई.) कल्याणी के चालुक्य वंश का महानतम शासक था। इसने अपने बड़े भाई सोमेश्वर द्वितीय (1068-76 ई.) का तख्ता पलट कर कल्याणी पर शासन किया। विक्रमादित्य षष्टम् ने त्रिभुवन मल्ल की उपाधि धारण की।
उसकी राजसभा में 'विक्रमांकदेवचरित' के रचयिता 'बिल्हण' तथा 'मिताक्षरा' के रचियता ' विज्ञानेश्वर' रहने थे। बिल्हण इसके राजकवि थे। 1076 ई. में अपने राज्यारोहण के समय विक्रमादित्य षष्टम् ने चालुक्य-विक्रम संवत चलाया। इस वंश का अंतिम शासक सोमेश्वर चतुर्थ था।

राष्ट्रकूट वंश-

राष्ट्रकूट वातापी के चालुक्यों के सामन्त थे किन्तु दन्तिदुर्ग ने 752 ई. में अंतिम चालुक्य शासक कीर्तिवर्मन को पराजित कर मान्यखेट (मालखेत) में स्वतंत्र राष्ट्रकूट राज्य की स्थापना की। अरबो के विरुद्ध चालुक्य नरेश की सहायता करने के कारण दन्तिदुर्ग को पृथ्वी वल्लभ की उपाधि मिली।
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दन्तिदुर्ग के पश्चात उसका चाचा कृष्ण प्रथम 765 ई. में शासक बना उसने ऐलोरा में प्रसिद्ध कैलाश मंदिर (गुहा मंदिर) का निर्माण करवाया।
ध्रुव प्रथम (780 से 793 ई.) प्रथम राष्ट्रकूट शासक था जिसने उत्तर भारत में व पालो पर आक्रमण कर त्रिकोणीय संघर्ष में हिस्सा लिया। ध्रुव के पुत्र गोविन्द तृतीय (793 से 814 ई.) ने भी पाल शासक धर्मपाल तथा प्रतिहार शासक नागभट्ट द्वितीय को पराजित किया।
अमोघवर्ष जैनमत का पोषक था। संजय लेख में उसे साहसांक (चन्द्रगुप्त द्वितीय) से भी महान बताया गया है। अमोघवर्ष ने मान्यखेत में अपनी राजधानी स्थानांतरित कर दी। कृष्ण तृतीय की मृत्यु के बाद उनके सामन्त मालवा परमार स्वतंत्र हो गए।
चालुक्य सामन्त तैलप द्वितीय ने अन्तिम राष्ट्रकूट राजा कर्क द्वितीय को परास्त कर राष्ट्रकूट सत्ता का अन्त कर दिया तथा कल्याणी में चालुक्य वंश की स्थापना की।

चोल साम्राज्य-

चोल साम्राज्य की स्थापना विजयालय (850-871 ई.) ने की। उसने तंजौर पर अधिकार कर नरकेसरी की उपाधि धारण की। विजयालय पल्लवों का सामन्त था। उसने पल्लवों की अधीनता में ही अपनी शक्ति बढ़ाई।
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आदित्य प्रथम (871-907 ई.)
इसने चोलों को पूर्ण स्वतंत्र किया तथा पल्लवों को परास्त कर 'कोदण्डराम' की उपाधि धारण की।
परांतक प्रथम (907-53 ई.)
परांतक ने 915 ई. में वेल्लूर के युद्ध में पाण्ड्य (राजसिंह द्वितीय) तथा श्रीलंका (कस्सप पंचम) की सेना को पराजित कर दिया।
राजराज प्रथम (985-1014 ई.) 
राजराज प्रथम के राज्यारोहण के साथ ही चोल शक्ति का उत्कर्ष प्रारम्भ हुआ। वह परान्तक द्वितीय का पुत्र था। उसने चेरों की नोसेना को कंडलूर के युद्ध में पराजित किया और काण्डलूरशालेकलमरूत की उपाधि ग्रहण की।
राजराज प्रथम ने श्रीलंका पर आक्रमण कर उसने शासक महेन्द्र (महिन्द) पंचम को पराजित किया और श्रीलंका के उत्तरी भाग को चोल साम्राज्य का एक प्रान्त बना दिया और इसे मुम्डिचोलमण्डलम् का नाम दिया।
उसने तंजौर में वृहदेश्वर या राजराजेश्वर मंदिर (शिव मंदिर) का निर्माण करवाया। राजराज प्रथम ने अपनी विजयो का समापन मालदीव समूह की विजय से किया। उसने 1000 ई. में भूराजस्व के निर्धारण के लिए भूमि का सर्वेक्षण कराया और स्थानीय स्वशासन को प्रोत्साहन दिया।
राजेन्द्र प्रथम (1014-1044 ई.) 
राजेन्द्र प्रथम ने सम्पूर्ण श्रीलंका को विजित किया। राजराज प्रथम ने सिर्फ उत्तरी श्रीलंका को विजित किया।राजराज प्रथम ने सिर्फ उत्तरी श्रीलंका ही जीता था। उसने बंगाल के पाल शासक महिपाल को पराजित कर गंगाघाटी के अभियान की सफलता पर 'गंगेकोण्डचोल' की उपाधि धारण की तथा गंगेकोण्डचोलपुरम् नामक नयी राजधानी की स्थापना की।
नवीन राजधानी के निकट सिंचाई के लिए 'चोलगंगम' नामक तालाब का निर्माण करवाया।
राजेंद्र प्रथम पहला भारतीय चोल शासक था जिसने अरब सागर पर अपनी प्रभुता कायम की। अरब सागर स्थित सदिमन्तीब द्वीप पर अपना अधिकार स्थापित किया। राजेन्द्र प्रथम ने एक वैदिक कॉलेज की भी स्थापना की।
राजाधिराज प्रथम (1044-1052 ई.)
इसने चेर, पाण्ड्य तथा श्रीलंका के गठबंधन को में सफलता प्राप्त की। कल्याणी के चालुक्य राजा सोमेश्वर प्रथम के साथ हुए 'कोप्पम के युद्ध' (1052 ई.) में राजाधिराज मारा गया।
वीर राजेंद्र (1064-70 ई.) ने चालुक्य सोमेश्वर प्रथम पर विजय की स्मृति में तुंगभद्रा के तट पर एक विजय स्तम्भ की स्थापना की।
कुलोत्तुंग प्रथम (1070-1120 ई.)
वेंगी का चालुक्य वंशी राजेन्द्र द्वितीय हजी कुलोत्तुंग प्रथम के नाम से चोल साम्राज्य का शासक बना। वह राजेन्द्र प्रथम का प्रपौत्र था। कुलोत्तुंग प्रथम के बाद उसका पुत्र विक्रम चोल (1122-1133 ई.) शासक बना।
विक्रमचोल का पुत्र कुलोत्तुंग द्वितीय (1133 से 1150 ई.) कट्टर शैव था तथा उसने गोविन्दराज की प्राचीन वैष्णव मूर्ति को समुद्र में फिंकवा दिया। इस वंश का अंतिम शासक राजेंद्र तृतीय (1250-1279 ई.) था। इसके बाद चोल पाण्ड्यों के अधीन हो गये। चोल राज्य का होयसल तथा पाण्ड्यों में विभाजन हो गया।


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