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राजवंश का क्या अर्थ होता है? | संगम काल क्या होता है? | प्राचिन भारत का इतिहास "आघैतिहासिक काल" एवं "ऐतिहासिक काल" ("राजवंश" एवं "संगम काल")
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प्राचिन भारत का इतिहास "आघैतिहासिक काल" एवं "ऐतिहासिक काल" ("राजवंश" एवं "संगम काल")
प्राचिन भारत के "राजवंश"
थानेश्वर के पुष्यभूति (वर्द्धन वंश)
गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद हरियाणा के अम्बाला जिले के थानेश्वर नामक स्थान पर 'वर्द्धन वंश' की स्थापना हुई। यह वंश हूणों के साथ हुए अपने संघर्ष के कारण प्रसिद्ध हुआ।इस वंश में नरवर्द्धन, राजवर्द्धन, आदित्यवर्द्धन एवं प्रभाकरवर्द्धन शासन हुए। प्रभाकरवर्द्धन के दो पुत्र राज्यवर्द्धन एवं हर्षवर्द्धन तथा पुत्री राज्यश्री थी।
"हर्षवर्धन" का साम्राज्य || Kingdom of "Harshvardhan" || "प्राचिन" भारत का इतिहास |
प्रभाकरवर्द्धन के पश्चात राज्यवर्द्धन शासन बना। राज्यवर्द्धन की मालवराज देवगुप्त एवं गौड़ शासन शशांक द्वारा मिलकर हत्या कर दी गई तथा राज्यश्री को कन्नौज में गिरफ्तार कर लिया गया। ऐसी हो विकट परिस्थिति में हर्षवर्द्धन थानेश्वर का राजा बना।
हर्ष ने गौड़ शासक शशांक को पराजित किया। नर्मदा नदी के किनारे हर्ष और चालुक्य शासक पुलकेशियन द्वितीय के बीच युद्ध (632 ई.) हुआ था। ह्वेनसांग के विवरण और ऐहोल अभिलेख से ज्ञात होता है कि इस युद्ध में सम्भवतः हर्ष की हार हुई थी। हर्ष ने कश्मीर पर आक्रमण कर वहाँ से बुद्ध का दाँत लाकर कन्नौज के निकट एक संघाराम में स्थापित किया।
चीनी यात्री ह्वेनसांग के अनुसार हर्ष की राजकीय आय चार भागों में बाँटी जाती थी–एक भाग राजा के खर्च के लिए रखा जाता था, दूसरा भाग विद्वानों के लिए, तीसरा भाग अधिकारियों और अमलो के बन्दोबस्त के लिए और चौथा भाग धार्मिक कार्यों के लिए।
हर्ष को तीन नाटको प्रियदर्शिका, रत्नावली तथा नागानन्द के रचयिता के रूप में भी याद किया जाता है।
बंगाल का "पाल वंश"
गोपाल के पश्चात उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश का राजा हुआ। उसने बंगाल को उत्तरी भारत के प्रमुख राज्यों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। धर्मपाल की महत्वपूर्ण सफलता थी–कन्नौज के शासक इन्द्रायुध को परास्त कर चक्रायुध को अपने संरक्षण में कन्नौज की गद्दी पर बैठाना।
धर्मपाल (770-810 ई.)–
गोपाल के पश्चात उसका पुत्र धर्मपाल पाल वंश का राजा हुआ। उसने बंगाल को उत्तरी भारत के प्रमुख राज्यों की श्रेणी में स्थापित कर दिया। धर्मपाल की महत्वपूर्ण सफलता थी–कन्नौज के शासक इन्द्रायुध को परास्त कर चक्रायुध को अपने संरक्षण में कन्नौज की गद्दी पर बैठाया।
देवपाल (810-840 ई.)–
अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार राष्ट्रकूट शासको से अधिक शक्तिशाली माना है। देवपाल ने मुंगेर में अपनी राजधानी स्थापित की थी। देवपाल ने सुवर्णद्वीप के शैलेन्द्रवंशी शासक बालपुतदेव को नालन्दा में विहार बनवाने की अनुमति दी तथा बौद्ध विहार के अनुरक्षण के लिए पाँच गाँव अनुदान में प्रदान किए। देवपाल बौद्ध धर्म का संरक्षक था। लोकेश्वर शतक के रचयिता वज्रदत को उसने संरक्षण दिया।
महीपाल प्रथम (988-1038 ई.)–
इसे पाल वंश का दूसरा संस्थापक माना जाता है। इसके काल में राजेन्द्र चोल ने बंगाल पर आक्रमण किया तथा पाल शासक को पराजित किया। उसने बौद्ध भिक्षु अतिस के नेतृत्व में तिब्बत में एक धर्म प्रचारक मण्डल भेजा था।
रामपाल (1077–1120 ई.)–
यह इस वंश का अन्तिम शासक माना जाता है।
बंगाल का "सेन वंश"–
पाल राजवंश के पतनोपरान्त बंगाल का शासन-सूत्र सेन राजवंश के हाथों में आ गया, जिसकी स्थापना सामन्तसेन ने राढ़ नामक स्थान पर की।
राजपूत वंश
राजपूतो की उत्पत्ति इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता है। इन राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं।कुछ विद्वान इसे भारत में रहने वाली एक जाति मानते हैं, तो कुछ अन्य इन्हें विदेशियों की सन्तान मानते हैं।
कुछ विद्वान राजपूतों को आबू पर्वत पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ मानते हैं।यह सिद्धान्त चन्दबरदाई के पृथ्वीराजरासो पर आधारित है तथा प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इससे माना जाता है।
गुर्जर-प्रतिहार वंश–
इनकी उत्पत्ति गुजरात व दक्षिण-पश्चिम राजस्थान में हुई।
गुर्जर-प्रतिहार वंश की स्थापना हरिश्चंद्र नामक राजा ने की, किन्तु इस वंश का वास्तविक प्रथम महत्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था। नागभट्ट प्रथम (730-795 ई.) ने अरबो से लोहा लिया और उन्हें सिन्ध 'म्लेच्छों का नाशक' बताया गया है।
मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई.)–
भोज वैष्णव धर्मानुयायी था। उसने आदिवाराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ धारण की जो उसके द्वारा चलाए गए चाँदी के द्रम्म सिक्कों पर भी अंकित है।
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.)–
मिहिर भोज के पश्चात उसके पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ने शासन किया। उसकी राजसभा प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे।
महीपाल (912-943 ई.)
इस वंश का अंतिम प्रभावशाली राजा था।
कन्नौज का "गहड़वाल वंश"–
चन्द्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना की। चन्द्रदेव ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। गोविन्दचन्द्र (1114-1155 ई.) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था।
शाकम्भरी का चौहान वंश–
चौहान वंश की अनेक शाखाओ में से 7वी शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकम्भरी (साम्भर एवं अजमेर के निकट) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है।
अजयराज (12वी शताब्दी) एक महान निर्माता था। उसने अजमेर नगर की स्थापना की।
विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (1153-1163 ई.)–
इसकी सबसे बड़ी सफलता तोमरों की स्वाधीनता समाप्त करके उसे अपना सामन्त बनाना था।
पृथ्वीराज चौहान (1178-1192 ई.)–
सोमेश्वर का पुत्र इतिहास प्रसिद्ध पृथ्वीराज तृतीय शासक हुआ।कथाओ में उसे रायपिथौरा कहा गया है। उसने बुन्देलखण्ड के चन्देल शासक परमार्दिदेव को 1182 ई. में एक रात्रि अभियान में पराजित किया।
1191 ई. में मुहम्मद गौरी तथा पृथ्वीराज तृतीय के बीच तराइन का प्रथम युद्ध हुआ, जिसमे मुहम्मद गौरी पराजित हुआ।अगले ही वर्ष 1192 ई. में मुहम्मद गौरी व पृथ्वीराज चौहान के बीच तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज पराजित हुआ तथा उसे बन्दी बनाकर कुछ समय बाद हत्या कर दी गई।
पृथ्वीराज तृतीय के राजकवि चन्द्रबरदाई ने पृथ्वीराजरासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने पृथ्वीराज विजय नामक संस्कृत काव्य की रचना की। अन्य रचनाओं में जयचन्द्र का हम्मीर महाकाव्य प्रसिद्ध हैं।
गुजरात (अन्हिलवाड) का चालुक्य वंश–
चालुक्य अथवा सोलंकी अग्निकुल से उत्पन्न राजपूतों में से एक थे। इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया।इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक एवं संरक्षक थे।
भीम प्रथम (1022-1064 ई.)–
इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसके शासनकाल में गुजरात पर महमूद गजनवी का आक्रमण (1025) ई. हुआ।
जयसिंह सिद्धराज (1094-1145)–
यह पराक्रमी तथा वीर होने के साथ ही साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था।
कुमारपाल (1153-1171 ई.)–
एक महत्वाकांक्षी शासक था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था।
वल्लभी के मैत्रक वंश–
कलचुरि वंश–
पूर्वी गंग वंश–
चेर राज्य–
चोल राज्य–
पाण्डय राज्य–
कुछ विद्वान राजपूतों को आबू पर्वत पर वशिष्ठ के अग्निकुण्ड से उत्पन्न हुआ मानते हैं।यह सिद्धान्त चन्दबरदाई के पृथ्वीराजरासो पर आधारित है तथा प्रतिहार, चालुक्य, चौहान और परमार राजपूतों का जन्म इससे माना जाता है।
गुर्जर-प्रतिहार वंश–
"गुर्जर-प्रतिहार"|| Gurjara Pratihara || "प्राचिन" भारत का इतिहास |
गुर्जर-प्रतिहार वंश की स्थापना हरिश्चंद्र नामक राजा ने की, किन्तु इस वंश का वास्तविक प्रथम महत्वपूर्ण शासक नागभट्ट प्रथम था। नागभट्ट प्रथम (730-795 ई.) ने अरबो से लोहा लिया और उन्हें सिन्ध 'म्लेच्छों का नाशक' बताया गया है।
मिहिर भोज प्रथम (836-885 ई.)–
भोज वैष्णव धर्मानुयायी था। उसने आदिवाराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ धारण की जो उसके द्वारा चलाए गए चाँदी के द्रम्म सिक्कों पर भी अंकित है।
महेन्द्रपाल प्रथम (885-910 ई.)–
मिहिर भोज के पश्चात उसके पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम ने शासन किया। उसकी राजसभा प्रसिद्ध विद्वान राजशेखर निवास करते थे।
महीपाल (912-943 ई.)
इस वंश का अंतिम प्रभावशाली राजा था।
कन्नौज का "गहड़वाल वंश"–
चन्द्रदेव ने कन्नौज में गहड़वाल वंश की स्थापना की। चन्द्रदेव ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की। गोविन्दचन्द्र (1114-1155 ई.) इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इस वंश का अंतिम शक्तिशाली शासक था।
शाकम्भरी का चौहान वंश–
चौहान वंश की अनेक शाखाओ में से 7वी शताब्दी में वासुदेव द्वारा स्थापित शाकम्भरी (साम्भर एवं अजमेर के निकट) के चौहान राज्य का इतिहास में विशेष स्थान है।
अजयराज (12वी शताब्दी) एक महान निर्माता था। उसने अजमेर नगर की स्थापना की।
विग्रहराज चतुर्थ अथवा वीसलदेव (1153-1163 ई.)–
इसकी सबसे बड़ी सफलता तोमरों की स्वाधीनता समाप्त करके उसे अपना सामन्त बनाना था।
पृथ्वीराज चौहान (1178-1192 ई.)–
सोमेश्वर का पुत्र इतिहास प्रसिद्ध पृथ्वीराज तृतीय शासक हुआ।कथाओ में उसे रायपिथौरा कहा गया है। उसने बुन्देलखण्ड के चन्देल शासक परमार्दिदेव को 1182 ई. में एक रात्रि अभियान में पराजित किया।
1191 ई. में मुहम्मद गौरी तथा पृथ्वीराज तृतीय के बीच तराइन का प्रथम युद्ध हुआ, जिसमे मुहम्मद गौरी पराजित हुआ।अगले ही वर्ष 1192 ई. में मुहम्मद गौरी व पृथ्वीराज चौहान के बीच तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज पराजित हुआ तथा उसे बन्दी बनाकर कुछ समय बाद हत्या कर दी गई।
पृथ्वीराज तृतीय के राजकवि चन्द्रबरदाई ने पृथ्वीराजरासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने पृथ्वीराज विजय नामक संस्कृत काव्य की रचना की। अन्य रचनाओं में जयचन्द्र का हम्मीर महाकाव्य प्रसिद्ध हैं।
गुजरात (अन्हिलवाड) का चालुक्य वंश–
चालुक्य अथवा सोलंकी अग्निकुल से उत्पन्न राजपूतों में से एक थे। इस वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। उसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया।इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक एवं संरक्षक थे।
भीम प्रथम (1022-1064 ई.)–
इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसके शासनकाल में गुजरात पर महमूद गजनवी का आक्रमण (1025) ई. हुआ।
जयसिंह सिद्धराज (1094-1145)–
यह पराक्रमी तथा वीर होने के साथ ही साथ विद्वानों का आश्रयदाता भी था।
कुमारपाल (1153-1171 ई.)–
एक महत्वाकांक्षी शासक था। प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द ने उसे जैन धर्म में दीक्षित किया था।
अन्य राजवंश
गौड़ वंश–
यह बंगाल में स्थित था। जिसके प्रमुख शासक शशांक ने राजधानी कर्ण सुवर्ण में स्थापित की। उसके कुछ स्वर्ण सिक्के मिले हैं, जिन पर गजलक्ष्मी का चित्र अंकित है। वह शैव मतावलम्बी था। उसने बोधिवृक्ष को कटवा दिया था।
वल्लभी के मैत्रक वंश–
इसकी स्थापना भट्टारकजी ने की थी। ये गुप्तो के अधीन सामन्त थे। इस वंश के शासक ध्रुवसेन द्वितीय से हर्ष ने अपनी पुत्री का विवाह किया था। वल्लभी बौद्ध धर्म एवं शिक्षा का महान केन्द्र था।
कलचुरि वंश–
इसकी स्थापना कोक्कल प्रथम ने की थी। गांगेय (1019-1040 ई.) इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था, जिसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी।
पूर्वी गंग वंश–
इसका सर्वाधिक प्रतापी शासक अन्नतवर्मा चोड़गंग ने पूरी के प्रसिद्ध जगन्नाथ मंदिर का निर्माण करवाया।
कन्नौज के लिए त्रिदलीय संघर्ष–
कन्नौज के लिए "त्रिदलीय संघर्ष" || "Three Party Struggle" for Kannauj || ("प्राचिन" भारत का इतिहास) |
हर्ष के पश्चात कन्नौज विभिन्न शक्तियों का केन्द्र बन गया। आठवीं सदी में कन्नौज पर अधिकार करने के लिए तीन बड़ी शक्तियों-पाल, प्रतिहार एव राष्ट्रकूट के बीच संघर्ष आरम्भ हो गया। यह संघर्ष लगभग 200 वर्षो तक चला। कन्नौज पर स्वामित्व के लिए संघर्ष का आरम्भ पाल शासक धर्मपाल ने किया था। इस त्रिदलीय संघर्ष का कोई लाभदायक परिणाम नही निकला। यह सघर्ष अनेक चरणों मे सम्पन्न हुआ।
"संगम काल"
तमिल भाषा का प्राचीनतम साहित्य संगम साहित्य के नाम से विख्यात है। संगम का अर्थ संघ या परिषद होता हैं। संगम साहित्य में दक्षिण भारत के जनजीवन की झांकी मिलती हैं।
संगम साहित्य में तीन महत्वपूर्ण राज्यो चोल, चेर व पाण्डय का उल्लेख मिलता है। इनमे चेर का सबसे अधिक उल्लेख है। यह सबसे प्राचीन वंश था।
चेर राज्य–
संगम साहित्य में सर्वाधिक प्राचीन वंश चेर वंश है तथा इसका ही सबसे अधिक उल्लेख है। चेर राज्य मालाबार (केरल) क्षेत्र में था।
चेर राज्य का प्रथम शासक 'उदियन जेरल' था। उसने महाभारत में भाग लेने वाले वीरो को भोजन कराया था। उसने एक बड़ी पाठशाला भी बनवाई। नेदुनजेरला आदन सात राजाओ को पराजित कर अधिराज की उपाधि धारण की तथा समस्त भारत विजय प्राप्त कर हिमालय तक अपने साम्राज्य को बढ़ाया तथा हिमालय पर चेर राज्य का चिन्ह धनुष अंकित कर इमयवरम्बर की उपाधि धारण की जिसका अर्थ है हिमालय की सीमा वाला।
चेर राज्य || Chera Kingdom || ("प्राचिन" भारत का इतिहास) |
शेनगुट्टूवन को लालचेर भी कहा जाता है।यह चेर वंश का सबसे महानतम शासक था। यह इमयवरम्बन का पुत्र था। यह 190 ई. के आस-पास शासक बना। आदिग इमान नामक चेर शासक ने दक्षिण में गन्ने की खेती आरम्भ की।
बन्दर चेर राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।
चोल राज्य–
चोल राज्य तमिलनाडु में पेन्नार तथा वेल्लरु नदियों के मध्य स्थित था। इसका प्रतीक चिन्ह बाघ था। चेलो की प्रारम्भिक राजधानी उत्तरी मनलूर थी। बाद में उरेयूर तथा तंजौर (तंजावुर) चोलों की राजधानी बनी।
उरेयूर कपास व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र था। एलारा नामक चोल राजा ने ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में श्रीलंका पर विजय प्राप्त कर वहा 50 वर्षों तक शासन किया। करिकाल इस काल में सबसे महत्वपूर्ण चोल शासक था उसने 190 ई. के आस-पास शासन किया। करिकाल ने पुहार (आधुनिक कावेरी पत्तनम) की स्थापना की तथा कावेरी नदी के किनारे 160 किमी. लम्बा बाँध बनाया। पुहार कावेरी की सहायक नदी वैगई पर स्थित है।
वाहेप्परन्दलई के युद्ध के करिकाल ने नो राजाओं को पराजित किया। पेरुनरकिल्लि नामक एक चोल राजा ने राजसूय यज्ञ किया। चोलों का सर्वप्रथम उल्लेख कात्यायन ने किया है।
पाण्डय राज्य–
पाण्ड्य राज्य सुदूर दक्षिण व दक्षिण पूर्वी भाग में स्थित था। इनकी राजधानी मदुरै थी। पाण्ड्यों का प्रतीक चिन्ह मछली (कार्प) था। इनकी प्रारम्भिक राजधानी कोरकई (कोल्ची) थी बाद में मदुरै (मदुरा) राजधानी बनी।
पाण्ड्यों का सर्वप्रथम उल्लेख मेगस्थनीज ने किया है।
"पाण्डय राज्य" || "Pandya kingdom" || ("प्राचिन" भारत का इतिहास) |
मेगस्थनीज के अनुसार पाण्ड्य राज्य मातृसत्तात्मक था, वहा पर एक स्त्री का शासन था तथा पाण्ड्य राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था।
वेलविकुड़ी दानपात्र के अनुसार पलशालइ मुदुकुमी पाण्ड्य वंश का प्रथम ऐतिहासिक राजा था। उसने अनेक वैदिक यज्ञ कराये। उसने 'पलशाले' (अनेक यज्ञशालाएं बनाने वाला) तथा 'महेश्वर' की उपाधि धारण की। नेडुंजेलियन सबसे विख्यात पाण्ड्य शासक था। इस ने 'तलैयालंगानम' के युद्ध में विजय प्राप्त की।
मदुरैकांची नामक कविता की में नेडुंजेलियन के शासन का विवरण मिलता हैं। इसकी रचना भांगुदि मरुदनार ने की थी। पाण्ड्यों की प्रारम्भिक राजधानी 'कोरकोई' मोतियों के लिए विख्यात है।
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