- Get link
- X
- Other Apps
सोलह महाजनपद क्या है? | मगध साम्राज्य का उत्कर्ष कैसे हुआ? | "प्राचिन" भारत का इतिहास "आघैतिहासिक काल" एवं "ऐतिहासिक काल" ('सोलह महाजन पद' एवं 'मगध साम्राज्य')
- Get link
- X
- Other Apps
प्राचिन भारत का "आघैतिहासिक काल" एवं "ऐतिहासिक काल" 'सोलह महाजनपद' एव 'मगध साम्राज्य का उत्कर्ष'
सोलह महाजनपद
महात्मा बुद्ध के जन्म से पहले सोलह महाजनपदों का निर्माण हो चुका था। बोद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में भी सोलह महाजनपदों के नाम मिलते है। जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र में भी सोलह महाजनपदों की सूची मिलती हैं।
- सोलह महाजनपदों में मगध सबसे शक्तिशाली था।
अंगुत्तर निकाय में 16 महाजपद
महाजनपद राजधानी
1. काशी वाराणसी
2. कोशल श्रावस्ती/अयोध्या (साकेत)
3. अंग चम्पा
4. मगध गिरिव्रज, राजगृह
5. वत्स कौशाम्बी
6. वज्जि विदेह व मिथिला
7. मल्ल कुशीनारा व पावा
8. अवन्ति उज्जयिनी व माहिष्मति
9. चेदि सोत्थिवती (शुक्तिमति)
10.अश्मक पोटन (पोटली)
11.कुरु इन्द्रप्रस्थ
12.पांचाल उत्तरी पांचाल-अहिच्छत्र
दक्षिणी पांचाल-कांपिल्य
13.मत्स्य विराट नगर
14.सूरसेन मथुरा
15.गांधार तक्षशिला
16.कम्बोज हाटक अथवा राजपुर
"मगध" साम्राज्य का उत्कर्ष
हर्यक वंश से पहले व्रहद्रथ वंश का शासन मगध पर था। इस वंश में व्रहद्रथ, जरासंध व रिपुजन शासक थे। जरासंध ने गिरिव्रज को अपनी राजधानी बनाया।
बिम्बिसार (544-492 ई.पू.)–
"मगध" साम्राज्य || "Magadh" Empire || "मगध" साम्राज्य का उत्कर्ष || ("प्राचिन" भारत का इतिहास) |
मगध का प्रथम साम्राज्य हर्यक कुल के शासक से आरम्भ होता है। बिम्बिसार मगध साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक भी माना जाता है।
आजातशत्रु (492-460 ई.पू.)–
अपने पिता बिम्बिसार की हत्या कर अजातशत्रु मगध का शासक बना।
उदायिन (460-445 ई.पू.)–
उदायिन ने गंगा व सोन नदियों के संगम पर पाटलिपुत्र (कुसुमपुर) नामक नगर की स्थापना की तथा राजगृह के स्थान पर पाटलिपुत्र को मगध की राजधानी बनाई।
शिशुनाग वंश (412-344 ई.पू.)–
शिशुनाग ने कवन्ति तथा वत्स को जीतकर मगध साम्राज्य में मिलाया तथा वज्जियों पर नियंत्रण रखने के लिए पाटलिपुत्र के अतिरिक्त वैशाली को दूसरी राजधानी बनाया।कालाशोक (394-366 ई.पू.)–
कालाशोक ने पुनः पाटलिपुत्र को अपनी राजधानी बनाया। शिशुनाग वंश का अंतिम शासक (महानन्दि) नन्दिवर्धन था।
नन्द वंश–
इस वंश की स्थापना महापद्मनंद (344 ई.पू. से 323 ई.पू.) ने की। पुराणों के अनुसार वह एक क्षूद्र शासक था। वह नंद वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। महाबोधि वंश में महापद्मनन्द का नाम उग्रसेन मिलता है।नन्द शासकों ने जैन धर्म को प्रश्रय दिया।322 ई.पू. में चन्द्रगुप्त मौर्य ने धनानन्द की हत्या कर मौर्य वंश की नींव डाली।
"मगध साम्राज्य" पर विदेशी आक्रमण व उनका प्रभाव-
ईरानी आक्रमण-
भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण ईरान के हखामनी वंश के राजाओं ने छ्ठी शताब्दी ई.पू. में किया। भारत पर प्रथम सफल ईरानी आक्रमण साइरस के उत्तराधिकारी दारा प्रथम (522-486 ई.पू.) ने किया। इससे पहले साइरस (कुरुष) ने आक्रमण का असफल प्रयास किया।
यूनानी आक्रमण-
मेसीडोनिया (मकदूनिया) के शासक फिलिप द्वितीय के पुत्र सिकन्दर ने 326 ई.पू. बैट्रियां (बल्ख) व काबुल जीतते हुए हिन्दूकुश पर्वत को पार कर भारत पर आक्रमण किया। 326 ई.पू. में सिकन्दर ने झेलम नदी के तट पर राजा पोरस को पराजित किया। इस युद्ध को झेलम का युद्ध (वितस्ता का युद्ध) तथा ग्रीक इतिहासकार हाइडेस्पीज का युद्ध कहते हैं।
"मगध" पर "मौर्य साम्राज्य" का शासन (322ई.पू.-185ई.पू.)-
"मौर्य साम्राज्य" || Maurya Empire || "मगध" ("प्राचिन" भारत का इतिहास) |
चन्द्रगुप्त मौर्य (322-298 ई.पू.)–
चन्द्रगुप्त मौर्य को ग्रीक साहित्य में सेन्ड्रोकोटस या एंड्रोकोटस कहा गया है। ब्राह्मण साहित्य में चन्द्रगुप्त मौर्य को शुद्र, जैन एव बौद्ध साहित्य में क्षत्रिय तथा ग्रीक साहित्य में उसे निम्न कुल का नहीं बल्कि निम्न परिस्थिति में जन्मा हुआ बताते हैं।
305 ई.पू. चन्द्रगुप्त मौर्य ने सीरिया के ग्रीक शासक सेल्यूकस निकेटर को परास्त किया। सन्धि स्वरूप सेल्यूकस निकेटर ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से किया, चार प्रान्त एरिया (हेरात), अराकोसिया (कन्धार), जेड्रोसिया (बलुचिस्तान) तथा पेरोपनिसड़ाई (काबुल) दहेज में दिये तथा मेगस्थनीज को अपने राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। बदले में चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी दिये। सेल्यूकस के साथ हुए चन्द्रगुप्त के इस युद्ध व सन्धि का वर्णन एप्पियानस ने किया हैं।
"चन्द्रगुप्त मौर्य" || Chandragupta Maurya || मगध पर "मौर्य साम्राज्य" का शासन |
305 ई.पू. चन्द्रगुप्त मौर्य ने सीरिया के ग्रीक शासक सेल्यूकस निकेटर को परास्त किया। सन्धि स्वरूप सेल्यूकस निकेटर ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त से किया, चार प्रान्त एरिया (हेरात), अराकोसिया (कन्धार), जेड्रोसिया (बलुचिस्तान) तथा पेरोपनिसड़ाई (काबुल) दहेज में दिये तथा मेगस्थनीज को अपने राजदूत के रूप में चन्द्रगुप्त के दरबार में भेजा। बदले में चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी दिये। सेल्यूकस के साथ हुए चन्द्रगुप्त के इस युद्ध व सन्धि का वर्णन एप्पियानस ने किया हैं।
स्ट्रेबो ने इस वैवाहिक संबंध का वर्णन किया है। विशाखादत्त के नाटक मुद्रा राक्षस में भी इस युद्ध व हेलन से चन्द्रगुप्त के विवाह का वर्णन है।दक्षिण में उसका साम्राज्य मैसूर तक फैला हुआ था। तथा अपने अन्तिम समय में चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैनमुनि भद्रबाहु से दीक्षा लेकर श्रवणवेलगोला (मैसूर) में 298 ई.पू. सल्लेखण (उपवास) द्वारा देह का त्याग किया।
परिशिष्ट पर्व के अनुसार चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार किया।महस्थान अभिलेख से चन्द्रगुप्त की बंगाल विजय की पुष्टि होती है। चन्द्रगुप्त मौर्य की चन्द्रगुप्त संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।
बिन्दुसार (298 ई.पू. से 274 ई.पू.)–
बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र था इसे ग्रीक लेखों में अमित्रघात (अमित्रोकेटस) कहा गया है।वायुपुराण में मद्रसार तथा जैनग्रन्थों में सिहसेन कहा गया है। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता का नाम दुर्धरा था।
बिन्दुसार आजीवन धर्म का अनुयायी था। चाणक्य बिन्दुसार का भी प्रधानमंत्री था। चाणक्य के बाद राधागुप्त प्रधानमंत्री बना।बिन्दुसार की सभा मे 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिषद थी जिसका प्रधान खल्लाटक था।
अशोक (273 ई.पू. से 232 ई.पू.)–
सिंहली अनुश्रुति (महावंश) के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर सिंघासन प्राप्त किया। चार वर्ष तक चले इस उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात अशोक ने 269 ई.पू. विधिवत राज्याभिषेक करवाया। महाबोधिवंश एव तारानाथ के अनुसार सत्ता प्राप्ति हेतु अशोक ने ग्रहयुद्ध में अपने भाइयों की हत्या कर दी।
राज्याभिषेक से पूर्व अशोक उज्जैन का गवर्नर था। राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे श्रीनगर की स्थापना की तथा अशोक शिव का उपासक था। कल्हण अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताता है।
राज्यभिषेक से सम्बंधित लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को बुद्धशाक्य कहा है। अशोक ने मोग्गलिपुततिस्म की अध्य्क्षता में तीसरी बौद्ध संगीति बुलाई। अशोक ने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष 261 ई.पू. में कलिग पर आक्रमण किया जिसमें करीब एक लाख लोग मारे गये। कलिग युद्ध व उसके परिणामो का वर्णन तेरहवें शिलालेख में मिलता है।
परिशिष्ट पर्व के अनुसार चन्द्रगुप्त ने जैन धर्म स्वीकार किया।महस्थान अभिलेख से चन्द्रगुप्त की बंगाल विजय की पुष्टि होती है। चन्द्रगुप्त मौर्य की चन्द्रगुप्त संज्ञा का प्राचीनतम अभिलेखीय साक्ष्य रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।
बिन्दुसार (298 ई.पू. से 274 ई.पू.)–
बिन्दुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र था इसे ग्रीक लेखों में अमित्रघात (अमित्रोकेटस) कहा गया है।वायुपुराण में मद्रसार तथा जैनग्रन्थों में सिहसेन कहा गया है। जैन ग्रन्थों के अनुसार बिन्दुसार की माता का नाम दुर्धरा था।
बिन्दुसार आजीवन धर्म का अनुयायी था। चाणक्य बिन्दुसार का भी प्रधानमंत्री था। चाणक्य के बाद राधागुप्त प्रधानमंत्री बना।बिन्दुसार की सभा मे 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिषद थी जिसका प्रधान खल्लाटक था।
अशोक (273 ई.पू. से 232 ई.पू.)–
सिंहली अनुश्रुति (महावंश) के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों की हत्या कर सिंघासन प्राप्त किया। चार वर्ष तक चले इस उत्तराधिकार युद्ध के पश्चात अशोक ने 269 ई.पू. विधिवत राज्याभिषेक करवाया। महाबोधिवंश एव तारानाथ के अनुसार सत्ता प्राप्ति हेतु अशोक ने ग्रहयुद्ध में अपने भाइयों की हत्या कर दी।
राज्याभिषेक से पूर्व अशोक उज्जैन का गवर्नर था। राजतरंगिणी के अनुसार अशोक ने वितस्ता (झेलम) नदी के किनारे श्रीनगर की स्थापना की तथा अशोक शिव का उपासक था। कल्हण अशोक को कश्मीर का प्रथम मौर्य शासक बताता है।
राज्यभिषेक से सम्बंधित लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को बुद्धशाक्य कहा है। अशोक ने मोग्गलिपुततिस्म की अध्य्क्षता में तीसरी बौद्ध संगीति बुलाई। अशोक ने राज्याभिषेक के आठवें वर्ष 261 ई.पू. में कलिग पर आक्रमण किया जिसमें करीब एक लाख लोग मारे गये। कलिग युद्ध व उसके परिणामो का वर्णन तेरहवें शिलालेख में मिलता है।
- दीपवंश एव महावंश के अनुसार अशोक को उसके शासन के चौथे वर्ष निग्रोध नामक भिक्षु ने बौद्ध धर्म में दीक्षित किया। मोग्गलिपुत्ततिस्स के प्रभाव में वह पूर्ण रूप बौद्ध हो गया।
- दिव्यावदान के अनुसार उपगुप्त ने अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया।
- अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारों व नियमो की संहिता प्रस्तुत की है उसे अभिलेखों में धम्म कहा गया है। अशोक ने धम्म की परिभाषा दीर्घ निकाय के 'राहलोवाद सुत्त' से ली है।
- अशोक का धम्म मूलतः उपासक बौद्ध धर्म था। इसका चरम लक्ष्य स्वर्ग प्राप्ति था।
मगध साम्राज्य में मौर्योत्तर काल-
शुंगवंश (185 से 75 ई.पू.)–
इस वंश की स्थापना मौर्य ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने अन्तिम मौर्य शासक ब्रहद्रथ की हत्या करके की थी। ब्रहद्रथ को हर्षचरित में प्रज्ञा दुर्बल (दुर्बध्दि) कहा है।
पुष्यमित्र शुंग ने वैदिक धर्म की पुनः प्रतिष्ठा की अतः उसका काल वैदिक प्रतिक्रिया अथवा वैदिक पुनजागरण का काल भी कहा जाता है।
मालविकाग्निमित्र के अनुसार पुष्यमित्र ने विदर्भ के राजा यज्ञसेन को हराया। पुष्यमित्र का उत्तराधिकारी उसका पुत्र अग्निमित्र हुआ। पुष्यमित्र के शासनकाल में वह विदिशा का उपराजा था।
शुंगों की राजधानी पाटलिपुत्र (कुसुमध्वज)थी। शुंगवंश के अन्तिम शासक देवभूमि की हत्या कर उसके प्रधानमंत्री वासुदेव ने 75 ई.पू. कण्व वंश की नींव रखी।
कण्व वंश (75 ई.पू. से 30 ई.पू.)–
इस वंश की स्थापना 75 ई.पू. में वासुदेव ने की। वासुदेव के बाद भूमिमित्र, नारायण व सुशर्मा शासक हुए। सुशर्मा के साथ ही कण्व राजवंश समाप्त हो गया।
सातवाहन वंश–
इस वंश की स्थापना सिमुक ने की थी पुराणों में सातवाहन वंश कमो आन्ध्रजातीय या आन्ध्रभृत्य कहा गया है। इसका निवास स्थान महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान था। सिमुक ने कण्व रमेश सुशर्मा को पराजित किया।
शातकणी प्रथम इस वंश का प्रथम योग्य शासन था। उसकी उपलब्धियो का ज्ञान नायनिक (नागनिका) के नानाघाट अभिलेख (पूना) से होता हैं। उसने दो अश्वमेध व एक राजसूय यज्ञ किया। सातकर्णी प्रथम की रानी नागनिका अंगीय वंश की राजकुमारी थी। अंगीय राजा अपने को महारथी कहते थे।
गौतमी पुत्र शातकर्णी (106 ई. से 130 ई.)–
यह इस वंश का 23 वा और सबसे महान शासक था। इसे आगमन निलय (वेदों का आश्रय) भी कहा गया है।
इसे अभिलेखों में एक ब्राह्मण (एक बहमन्), शकों को हराने वाला व 'क्षत्रियो के दर्प को चूर करने वाला' (खतियदपमानमदनस) कहा गया है। गौतमीपुत्र को चतुर्वर्ण व्यवस्था का रक्षक कहा गया है। उसने छिन्न-भिन्न होती वर्ण व्यवस्था की रक्षा की। इसके बारे में जानकारी इसकी माँ 'गौतमी बालश्री' को नासिक प्रशस्ति से मिलती है।
गौतमी पुत्र शातकर्णी के अभिलेखों के अनुसार उसके घोड़े तीन समुद्रों का पानी पीते थे।
शक–
शको को भारतीय साहित्य में सीथियन कहा गया है। भारत में पहला शक शासक माउस (मावेज) था। शको की पाँच शाखाएं थी-
1) अफगानिस्तान 2) पंजाब 3) मथुरा 4) पश्चिमी बंगाल
5) ऊपरी दक्कन।
शक राजा को क्षत्रप कहा जाता था। शको की भारत में दो शाखाएं हो गई।
1) उत्तरी क्षत्रप- तक्षशिला एव मथुरा
2) पश्चिमी क्षत्रप- नासिक एव उज्जैन।
शको ने पश्चिमी भारत में लगभग चार सदियों तक शासन किया और बड़ी सख्या में चांदी के सिक्के चलाए।
कुषाण वंश–
ये यूची कबीले से सम्बंधित थे।कालान्तर में यूची कबीला पाँच भागो में बंट गया। इनमे कोई चाउ-आंग शाखा ने भारत में कुषाण वंश की स्थापना की।
कुषाण वंश का प्रथम शासक कुजुल कडफिसस था। इसके प्रारंम्भिक सिक्कों पर यूनानी राजस हर्मियस की आकृति उत्कीर्ण है, जिससे सिद्ध होता है कि यह पहले हर्मियस के अधीन था।
कनिष्क–
कनिष्क महानतम कुषाण शासक था जो 78 ई. में गद्दी पर बैठा। उसने 78 ई. में एक संवत चलाया जो शक संवत के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उसने शासनकाल में कश्मीर में कुण्डलवन में वसुमित्र की अध्यक्षता में चौथी बौद्ध संगीति हुई। पार्श्व कनिष्क के राज गुरु थे। पार्श्व की सलाह से ही कनिष्क ने चौथी बौद्ध सगीति का आयोजन किया।
"मगध साम्राज्य" का "गुप्त काल"-
कुषाणो के पतन के पश्चात उत्तर भारत में अनेकराजतंत्र एवं गणतंत्र का उदय हुआ। राजतन्त्रो में नागवंश, आभीर, इक्ष्वाकु तथा गणतन्त्रों में अर्जुनायन, मालव, यौधेय, लिच्छवी, शिवि तथा कुणिन्द शामिल थे।
गुप्त सम्भवतः कुषाणों के सामन्त थे। गुप्त वंश का आरम्भिक राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में था। कुषाणों से प्राप्त सैन्य तकनीक एवं सुदृढ़ीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।गुप्त शासको के अधिकांश अभिलेख उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुए हैं।
चन्द्रगुप्त प्रथम (319-355 ई.)–
गुप्तवंशावली में सबसे पहला शासन चन्द्रगुप्त प्रथम था। यह गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक था।इसके राज्यारोहण की तिथि 319 ई. है तथा इसे गुप्त संवत का आरम्भ माना जाता है।उसने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया तथा अपने स्वर्ण सिक्के पर कुमारदेवी का नाम खुदवाया।
समुद्रगुप्त (335-375 ई.)–
चन्द्रगुप्त का प्रथम उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त हुआ। समुद्रगुप्त के कुछ सोने के सिक्के प्राप्त हुए है, जिन पर काँच नाम उत्कीर्ण है तथा सर्वराजोच्छेदा विरुद भी मिलता है।अभिलेखों में यह विरुदसमुद्रगुप्त के लिए प्रयुक्त हुआ है।समुद्रगुप्त को प्रयोग प्रशस्ति में लिच्छवी दौहित्र भी कहा गया है।
समुद्रगुप्त महान विजेता था। हरिषेण लिखित प्रयाग प्रशस्ति के सातवें श्लोक से उसकी सामाजिक विजयो का विवरण प्रारम्भ होता है। यह प्रशस्ति चम्पू शैली में लिखी गई हैं। समुद्रगुप्त का विजय अभियान पाँच चरणो में सम्पन्न हुआ था।
समुद्रगुप्त विजेता के साथ-साथ कवि, संगीतज्ञ तथा विद्या का सरंक्षक था। इलाहाबाद के अशोक स्तम्भ पर ही समुद्रगुप्त के सन्धि विग्राहक हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसे प्रयाग प्रशस्ति कहा गया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई.)–
गुप्तवंशावली में समुद्रगुप्त के पश्चात चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम उल्लेखित है, परन्तु दोनों शासकों के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है। विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्त नामक नाटक में भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से पूर्व रामगुप्त का गुप्त शासन के रूप में वर्णन किया गया है।
कुमारगुप्त प्रथम (415-454 ई.)–
कुमारगुप्त प्रथम के समय के सर्वाधिक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुआ है। कुमारगुप्त के विलसड अभिलेख से ही कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तो कि वंशावली प्राप्त होती है। कुमारगुप्त प्रथम के सुव्यवस्थित शासक का वर्णन उसके मन्दसौर अभिलेख से मिलता हैं, जिसकी रचना वत्सभट्टी प्रथम ने की थी। कुमारगुप्त प्रथम ने नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई।
स्कन्दगुप्त (454-467 ई.)–
स्कन्दगुप्त के समय मध्य एशिया के हूणों ने आक्रमण किया।भीतरी स्तम्भ लेख के अनुसार प्रथम हूण आक्रमण इसी के समय हुआ, जबकि जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार उसके हूणों के आक्रमण को विफल कर दिया गया। जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को म्लेच्छ कहा गया है।
गुप्तो के पतन के साथ नए वंशों का उदय हुआ। उनमे वल्लभी के मैत्रक, कन्नौज के मौखरि तथा थानेश्वर के वर्धक वंश आदि प्रमुख थे। मगध में परवर्ती गुप्तो की एक शाखा शासन करने लगी। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद गुप्त प्रान्तों में सर्वप्रथम जूनागढ़ (सौराष्ट्र) प्रान्त ही स्वतन्त्र हुआ।
गुप्तोत्तर काल /पूर्व मध्यकाल–
गुप्तो के पतन के पश्चात सामन्तवाद नामक नई प्रव्रत्ति का उदभव हुआ, जिसने विकेंद्रीकरण एव क्षेत्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया।यद्यपिइस दौरान कुछ प्रमुख राजवंशों ने शासन किया, लेकिन सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में बाँधा नहीं जा सका। राजनीतिक व्यवस्था की यह प्रव्रत्ति तुर्क शासन की स्थापना तक जारी रही।
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ अनेक नए वंशों का उदय हुआ, जिनमे वल्लभी के मैत्रक, पंजाब के हूण, मालवा और मगध के उत्तरगुप्त, कन्नौज के मौखरि तथा थानेश्वर के पुष्यभूति वंश प्रमुख थे।
समुद्रगुप्त विजेता के साथ-साथ कवि, संगीतज्ञ तथा विद्या का सरंक्षक था। इलाहाबाद के अशोक स्तम्भ पर ही समुद्रगुप्त के सन्धि विग्राहक हरिषेण ने संस्कृत भाषा में प्रशंसात्मक वर्णन प्रस्तुत किया है, जिसे प्रयाग प्रशस्ति कहा गया है।
चन्द्रगुप्त द्वितीय (380-412 ई.)–
गुप्तवंशावली में समुद्रगुप्त के पश्चात चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम उल्लेखित है, परन्तु दोनों शासकों के बीच रामगुप्त नामक एक दुर्बल शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है। विशाखदत्त कृत देवीचन्द्रगुप्त नामक नाटक में भी चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य से पूर्व रामगुप्त का गुप्त शासन के रूप में वर्णन किया गया है।
कुमारगुप्त प्रथम (415-454 ई.)–
कुमारगुप्त प्रथम के समय के सर्वाधिक गुप्तकालीन अभिलेख प्राप्त हुआ है। कुमारगुप्त के विलसड अभिलेख से ही कुमारगुप्त प्रथम तक गुप्तो कि वंशावली प्राप्त होती है। कुमारगुप्त प्रथम के सुव्यवस्थित शासक का वर्णन उसके मन्दसौर अभिलेख से मिलता हैं, जिसकी रचना वत्सभट्टी प्रथम ने की थी। कुमारगुप्त प्रथम ने नालन्दा विश्वविद्यालय की स्थापना करवाई।
स्कन्दगुप्त (454-467 ई.)–
स्कन्दगुप्त के समय मध्य एशिया के हूणों ने आक्रमण किया।भीतरी स्तम्भ लेख के अनुसार प्रथम हूण आक्रमण इसी के समय हुआ, जबकि जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार उसके हूणों के आक्रमण को विफल कर दिया गया। जूनागढ़ अभिलेख में हूणों को म्लेच्छ कहा गया है।
गुप्तो के पतन के साथ नए वंशों का उदय हुआ। उनमे वल्लभी के मैत्रक, कन्नौज के मौखरि तथा थानेश्वर के वर्धक वंश आदि प्रमुख थे। मगध में परवर्ती गुप्तो की एक शाखा शासन करने लगी। गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद गुप्त प्रान्तों में सर्वप्रथम जूनागढ़ (सौराष्ट्र) प्रान्त ही स्वतन्त्र हुआ।
गुप्तोत्तर काल /पूर्व मध्यकाल–
गुप्तो के पतन के पश्चात सामन्तवाद नामक नई प्रव्रत्ति का उदभव हुआ, जिसने विकेंद्रीकरण एव क्षेत्रीयता की भावना को बढ़ावा दिया।यद्यपिइस दौरान कुछ प्रमुख राजवंशों ने शासन किया, लेकिन सम्पूर्ण भारत को एकसूत्र में बाँधा नहीं जा सका। राजनीतिक व्यवस्था की यह प्रव्रत्ति तुर्क शासन की स्थापना तक जारी रही।
गुप्त साम्राज्य के पतन के साथ-साथ अनेक नए वंशों का उदय हुआ, जिनमे वल्लभी के मैत्रक, पंजाब के हूण, मालवा और मगध के उत्तरगुप्त, कन्नौज के मौखरि तथा थानेश्वर के पुष्यभूति वंश प्रमुख थे।
Comments
Post a Comment