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भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन | आधुनिक भारत का इतिहास | bharat me uropiyo sakti ka aagman | adhunik bharat ka itihas
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भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन (पुर्तगाली, डचों, अंग्रेज, डेंन, फ्रांसीसी, का आगमन)
15वी शताब्दी में हुई कुछ भौगोलिक खोजो ने संसार के विभिन्न देशों में आपसी संपर्क स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया। पश्चिमी यूरोप के राष्ट्रीय ने नए व्यापारी मार्गो की तलाश प्रारंभ की।
भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन | bharat me uropiyo sakti ka aagman |
पुर्तगाली:-
प्रथम पुर्तगाली यात्री वास्कोडिगामा 90 दिन की समुद्री यात्रा के बाद 1498 ई. को कालीकट (भारत) के समुद्र तट पर उतरा। उस समय कालीकट का शासक जामोरिक था। इस खोज को पुरानी दुनिया की खोज भी कहा गया।पुर्तगाली समुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इंडिया नाम दिया गया। 1500 ई. में केब्रल के नेतृत्व में जहाज भेजे गए। वास्कोडिगामा 1502 ई. में दो जहाजी बेड़ों के साथ दूसरी बार भारत आया।
1503 ई. में अल्बूकर्क भारत आया। भारत में पुर्तगाली शक्ति का वास्तविक नीव डालने वाला अल्बूकर्क ही था।
भारत में प्रथम पुर्तगाली वायसराय के रूप में फ्रांसिस्को-डि-अल्मेडा (1505-1509 ई.) का आगमन हुआ।
अल्बूकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर के शासक युसूफ आदिलशाह से गोवा को छीन लिया जो कालांतर में पुर्तगाली व्यापारिक केंद्रों की राजधानी बनाई गई।
नीलू-डी-कुन्हा ने 1530 ई. में कोचीन की जगह गोवा को अपनी राजधानी बनाई।
पुर्तगालियों ने अकबर की अनुमति से हुगली तथा शाहजहां की अनुमति से बन्देह में कारखाने स्थापित किए।
उन्होंने कार्टज-अर्माडा काफिला पद्धति के द्वारा भारतीय तथा अरबी जहाजों का कार्टज या परमिट के बिना अरब सागर में प्रवेश वर्जित कर दिया।
इसके अलावा भारत में गोथिक स्थापत्यकला का आगमन हुआ। औषधीय वनस्पति से संबंधित पहले वैज्ञानिक ग्रंथ का 1563 ई. में गोवा के प्रकाशन हुआ।
पुर्तगालियों कि भारतीय जनता के प्रति धार्मिक असहिष्णुता की भावना तथा गुप्त व्यापार पद्धति के कारण इसका पतन हो गया।
1602 ई. में भारत में 'डच इंडिया' कंपनी की स्थापना हुई। शीघ्र ही डचों ने मसाले के व्यापार पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
1641 ई. में डचों ने इलक्का पर अधिकार कर लिया। 1652 ई. में श्रीलंका में पुर्तगालियों के प्रभाव को समाप्त कर अपने अधिकार में कर लिया और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव में वृद्धि की।
डचों का दक्षिण-पूर्वी एशिया में अधिक ध्यान रहा। परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे भारत में उनकी ख्याति कम होने लगी तथा अन्य यूरोपीय जातियों का प्रभाव बढ़ने लगा। इसके बाद 1759 ई. में हुई वेढरा के युद्ध से डचों का भारत में पतन हो गया।
उन्होंने कार्टज-अर्माडा काफिला पद्धति के द्वारा भारतीय तथा अरबी जहाजों का कार्टज या परमिट के बिना अरब सागर में प्रवेश वर्जित कर दिया।
इसके अलावा भारत में गोथिक स्थापत्यकला का आगमन हुआ। औषधीय वनस्पति से संबंधित पहले वैज्ञानिक ग्रंथ का 1563 ई. में गोवा के प्रकाशन हुआ।
पुर्तगालियों कि भारतीय जनता के प्रति धार्मिक असहिष्णुता की भावना तथा गुप्त व्यापार पद्धति के कारण इसका पतन हो गया।
भारत में डचों का आगमन:-
डचों का पहला व्यापारिक बेड़ा मलाया द्वीप समूह में आया। केप ऑफ गुड होप होते हुए भारत में 1596 में आने वाला कॉरनेलिस डे हस्तमान प्रथम डच नागरिक था।1602 ई. में भारत में 'डच इंडिया' कंपनी की स्थापना हुई। शीघ्र ही डचों ने मसाले के व्यापार पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
1641 ई. में डचों ने इलक्का पर अधिकार कर लिया। 1652 ई. में श्रीलंका में पुर्तगालियों के प्रभाव को समाप्त कर अपने अधिकार में कर लिया और दक्षिण भारत में अपने प्रभाव में वृद्धि की।
डचों का दक्षिण-पूर्वी एशिया में अधिक ध्यान रहा। परिणाम स्वरूप धीरे-धीरे भारत में उनकी ख्याति कम होने लगी तथा अन्य यूरोपीय जातियों का प्रभाव बढ़ने लगा। इसके बाद 1759 ई. में हुई वेढरा के युद्ध से डचों का भारत में पतन हो गया।
भारत में यूरोपीय शक्तियों का आगमन की सूची | adhunik bharat ka itihas |
अंग्रेज:-
1599 ई. में ही 'अंग्रेज ईस्ट इंडिया कंपनी' की स्थापना हुई, जिसे दिसंबर 1600 ई. में ब्रिटेन की महामारी 'एलिजाबेथ प्रथम' ने पूर्व के साथ व्यापार के लिए 15 वर्षों का अधिकार पत्र प्रदान किया।1608 ई. में कैप्टन हॉकिंस सूरत पहुंचा, जहाँ से वह मुगल सम्राट जहाँगीर से मिलने आगरा गया।
जहाँगीर ने हॉकिंस को 400 का मनसब एवं जागीर प्रदान की किंतु पुर्तगालियों द्वारा जहाँगीर के कान भरे जाने के कारण जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत छोड़ने का आदेश दिया।
6 फरवरी 1613 ई. को जहाँगीर ने एक शाही फरमान द्वारा अंग्रेजों को सूरत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने की अनुमति प्रदान की।
ब्रिटिश सम्राट जेम्स प्रथम के दूत के रूप में सर टॉमस रो 18 सितंबर, 1615 को सूरत पहुंचा व जनवरी, 1616 ई. में जहाँगीर से अजमेर में मिला।
दक्षिण में ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपना पहला कारखाना मसूलीपट्टनम और पेटापुली में 1611 ई. में स्थापित किया।
1639 ई. में फ्रांसिस डे नामक अंग्रेज ने चंद्रगिरी के राजा दरमेला वेंकटप्पा से मद्रास को पट्टे पर प्राप्त किया।
मद्रास में अंग्रेजों ने 'फोर्ट सेंट जॉर्ज' नामक किला बनाया। 1651 ई. में शाहशुजा से अनुमति लेकर ब्रिजमैन ने बंगाल में हुगली नामक स्थान पर बंगाल के प्रथम अंग्रेज कारखाने की स्थापना की।
1661 ई. में पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन बैगाजा का विवाह ब्रिटेन के चार्ल्स द्वितीय से हुआ व पुर्तगाल ने चार्ल्स को बम्बई दहेज में दे दिया। चार्ल्स द्वितीय ने 1668 ई. में दस पौंड के वार्षिक किराए पर बम्बई को ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया।
1698-1699 ई. में बंगाल के सूबेदार अजीमुश्शान की अनुमति के बाद कंपनी में जमीदार इब्राहिम खाँ से रु 1,200 में सूतनाती, गोविंदपुर व कालिकाता की जमीदारी खरीदी। इन तीनों गांवों को मिलाकर आधुनिक कोलकाता की नींव 1699 में जॉब चारनाक ने डाली व फोर्ट विलियम का किला बनाया गया।
फर्रूखसियर ने 1717 ई. में फरमान (दस्तक) जारी कर बंगाल में रु 3,000 वार्षिक कर के बदले कंपनी के व्यापार को सीमा शुल्क से मुक्त कर दिया।
और्म ने फर्रूखसियर के इस फरमान को 'कंपनी का मैग्राकार्टा' कहा हैं।इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी को जॉन कंपनी के नाम से भी पुकारा जाता था।
फादर स्टीवेंसन एक आदमी के रूप में भारत आने वाला पहला अंग्रेज था।
डेंन:-
तंजौर जिले के ट्रांकेबोर में 1620ई. में उन्होंने अपनी पहली फैक्ट्री की स्थापना की। इसके बाद बंगाल के सीरमपुर में 1676 ई. में उन्होंने अपनी दूसरी फैक्ट्री स्थापित की। 1845 ई. में डेन ने अपनी सभी फैक्ट्रियां ब्रिटिश कंपनी को बेच दी और इसके साथ ही वे भारत से चले गए।फ्रांसीसी:-
कोलबर्ट ने 1664 ई. में फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी 'कम्पने देस इण्दसे ओरियंटलेस' की स्थापना की। 1668 ई. में 'फ्रेंसिस कैरों' ने सूरत में पहले फ्रेंच व्यापारिक कारखाने की स्थापना की।1673 ई. फ्रैंको मार्टी ने विलकोंडापुर के सूबेदार शेरखाँ लोदी से पर्दुचुरी नामक गांव प्राप्त कर वहाँ 1674 ई. में पांडिचेरी नामक फ्रेंच बस्ती बसाई।
1701 ई. में पांडिचेरी पूर्व में फ्रेंच बस्तियों का मुख्यालय बना तथा फ्रांसीस मार्टिन को भारत में कंपनी का महानिदेशक बनाया।
प्रारंभ में फ्रेंच कंपनी की स्थापना व्यापारिक उद्देश्यों के लिए की गई थी किंतु डूप्ले के गवर्नर बनने के बाद फ्रेंच कंपनी भारतीय राजनीति में सक्रिय हो गई।
कोरोमंडल तट पर स्थित कर्नाटक के लिए अंग्रेजों व फ्रांसीसी कंपनी में 20 वर्षों तक तीन युद्ध हुए।
प्रथम कर्नाटक युद्ध (1746-1748 ई.)-
प्रथम कर्नाटक युद्ध का तत्कालीन कारण अंग्रेज कैप्टन बर्नेट द्वारा फ्रांसीसी जहाजों पर अधिकार कर लेना था।डूप्ले ने मारीशस के फ्रेंड गवर्नर ला बुर्दने के सहयोग से मद्रास के गवर्नर मोर्स को पराजित कर आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया।
1748 ई. में ऑक्स-ला-शैपेल की संधि से यूरोप में दोनों देशों में युद्ध समाप्त होने से भारत में भी दोनों कंपनियों में युद्ध समाप्त हो गया। इस युद्ध से भारत में फ्रांसीसीयो की प्रतिष्ठा बढ़ी।
द्वितीय कर्नाटक युद्ध (1749-1754 ई.)-
1748 ई. में निजामुलमुल्क असफजाह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र नासिर जंग (1748-1750 ई.) नवाब बना किंतु नासिर जंग के भतीजे (आसफजाह का पौत्र) मुजफ्फर जंग ने इस दावे को चुनौती दी।डूप्ले ने चाँदा साहब व मुजफ्फर जंग का समर्थन किया। अंग्रेजों ने अनवरुद्दीन व नासिर जंग का समर्थन किया। चाँदा साहब ने 1749 ई. में अम्बर के युद्ध में अनवरूद्दीन को पराजित कर मार डाला वह दिसंबर, 1750 ई. में नासिर जंग भी मारा गया।
इसके साथ डूप्ले की शक्ति चरम पर पहुंच गई। 1751 में मुजफ्फर जंग की मृत्यु के बाद बुस्सी ने सलाबत जंग को दक्कन का सूबेदार बनाया।
किंतु अनवरूद्दीन के पुत्र मुहम्मद अली ने अंग्रेजों से मदद मांगी व चिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। फ्रांसीसीयों व चाँदा साहब ने त्रिचनापल्ली को घेर लिया।
अंत में फ्रांस की हार हुई व चाँदा साहब की हत्या कर दी गई व मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बना। द्वितीय कर्नाटक युद्ध की समाप्ति 1755 ई. में पांडिचेरी की संधि हुई।
तीसरा कर्नाटक युद्ध (1757-1763 ई.)-
इसी युद्ध का तत्कालीन कारण क्लाइव तथा एडमिरल वाटसन द्वारा बंगाल स्थित चंद्रनगर पर अधिकार था।तीसरे कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसीयों की निर्णायक पराजय हुई वह भारत में उनकी राजनैतिक महत्वकांक्षा हमेशा के लिए समाप्त हो गई।
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